शिवगंगा एक्सप्रेस ने काशी से ले आकर मुझे दिल्ली पटक दिया।कमरे पर पहुँचा तो खुद को विश्वास नहीं हुआ कि ये मेरा ही कमरा है।2-बीएचके का फ्लैट कम कबाड़खाना लग रहा था।चुंकि घर से लौटा था एक महीने के बाद,
जहाँ हर चीज यथास्थान रहती है और यहाँ जिस मानसिक अवस्था में मैं था उसी का प्रतिबिम्ब था मेरा फ्लैट।एक कमरे में पन्ने फटे हुए बिखरे पड़े थे,
बिस्तर फर्श पर लगा हुआ था जिसपे किताबें,
अखबार और न जाने क्या-क्या बिखरा पड़ा था।दूसरे कमरे में कपड़े,
सीडियाँ, कैसेट्स।देखकर दिमाग
चकरा गया।रसोई
का सामान
बिखरा पड़ा
था।कुल मिलाकर
यह समझ
में आया
कि 'अनुरगवा साफ
करत-करत
हाथे में
घट्टा बईठ
जाई।खैर सबसे
पहले रसोई
की बारी
आई, उसको सही
करने के
बाद सामान
लेकर आया
तो पता
चला किराने
वाले का
3500 बकाया भी
चुकता करना
है।जिंदगी नहीं
आइस-पाईस
का खेल
हो गया।दो
दिन लग
गया पूरा
घर व्यवस्थित
करने में।इतने
में एक
बढ़िया खबर
यह आई
की बोर्ड
की उत्तर-पुस्तिकाओं
के मुल्यांकन
के पैसे
आ गए।7000 रुपए मिले
जो पिछला
उधारी चुकाने
में उड़
गए।अब असली
परीक्षा शुरू
होनी थी
और वो
थी नौकरी
खोजना क्योंकि
जिम्मेदारी बहुत
थी और
आमदनी शुन्य
बटा सन्नाटा।अखबार
वाले को
बोला कि
मेरा रेगुलर
वाला पेपर
शुरू करे
और इतवार
को 'हिन्दुस्तान टाइम्स' और 'टाइम्स ऑफ
इंडिया' दोनों साथ
में मंगलवार
को 'हिन्दुस्तान टाइम्स' और बुधवार
को 'टाइम्स ऑफ
इंडिया' क्योंकि इन
अखबारों में
इस दिन
रिक्तियों का
एक अलग
पन्ना आता
है।रिक्तियाँ तो
बहुत थी
लेकिन ढंग
की बहुत
कम।फिर भी
कुछ को
रेखांकित किया
और तय
किया दिल्ली
के हर
इलाके में
एक दिन
जाकर अपनी
CV दे आऊँगा
विद्यालयों में
और जहाँ
रिक्तियाँ हैं
वहाँ जाकर
साक्षात्कार।रोज
रोहिणी के
सेक्टर 28 से डीटीसी
बस का
50 रुपए का
पास बनवाता
और निकल
जाता एक
इलाके में।
जुलाई का
महीना शुरू
हुआ था।मकान
मालिक का
किराया और
भाई का
महीने कि
खर्च दोनों
लोगों के
खाते में
जमा कराया
बैंक से
निकाल करके।
जितनी भी
बार पैसे
बैंक से
निकाले कभी
इस ओर
ध्यान ही
नहीं दिया
कि खुद
के खाते
में कितनी
शेष राशि
है।पैसे का
कोई लेखा-जोखा
नहीं।रोज निकलता
करीब 10-15
विद्यालयों में
अपनी CV देखकर
आता तो
लगभग सभी
ने यही
कहा कि
जगह खाली
होगी तो
आपको सुचित
किया जाएगा।10 दिन निकाले
केवल इस
काम में।
जब कहीं
से कोई
सूचना नहीं
आई 10 दिनों में
तो चिंता
बढ़ने लगी।एक
तो उस
दुर्घटना से
मानसिक स्थिति
खुद ठीक
नहीं थी
और दूसरे
नौकरी की
समस्या ने
विक्षिप्त सा
बना दिया
था फिर
भी एक
विश्वास था
खुद के
ऊपर कि
नौकरी क्यों
नहीं मिलेगी।उसी
विश्वास का
फल था
कि आत्मविश्वास
में कोई
कमी नहीं
आई थी।लेकिन
आत्मविश्वास को
बिना खाद-पानी
के कैसे
ज्यादा दिन
जिंदा रखा
जा सकता
है।बस किसी
एक जगह
से साक्षात्कार
का इंतजार
था। इसी
बीच एक
दिन ऐसे
ही अचानक
गया ATM कुछ
पैसे निकालने
तो पाया
कि खाते
में मात्र
4000 रूपए ही
बचें हैं
और दिल्ली
शहर में
इसमें तो
एक महीना
भी नहीं
काटा जा
सकता है।मेरे
पैरों के
नीचे से
तो जमीन
सी खिंच
गई जैसे।अब
क्या होगा
और कैसे
होगा।
(शेष अगले अंक में........)
'बेबाकी'
अगली कड़ी का इंतजार ।
जवाब देंहटाएंब्लौग फौलौवर बटन लगायें ।
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