उस रात मुझे शायद जनवरी के बाद नींद आई।फिर अगले दिन
सुबह निकल गया बैग टांग कर।निकलता था तो पता ही नहीं रहता था कि कहाँ जा रहा हूँ
या जाना है।बस निकल गया लेकिन ये ध्यान में रखता था कि ऐसी जगह चलूँ जहाँ पहचानने
वाला कोई न मिले खासकर के उस हाऊसिंग सोसायटी का जिसमें मैं रहता था।कुछ घंटे किसी
बस स्टैंड पर गुजारा, फिर
मन न लगे तो कोई पार्क खोजता था क्योंकि बहुत धूप होती थी अप्रैल के महीने में।बैग
में एक चादर, कुछ
किताबें और गमछा लेकर चलता था ताकि बिछाकर किसी पेड़
की छाँव में लेटकर कुछ घंटे आराम कर सकूँ और पढ़ सकूँ।बैग खोला चादर निकाल कर के
पेड़ के नीचे बिछाया, गमछा
सर पर रखकर के किताब निकाल कर लेट करके पढ़ने लगा लेकिन ऐसी टूटी हालत में नींद
कहाँ आए और पढ़ने में मन कहाँ लगता था।50 पृष्ठ
पढ़ जाता था लेकिन समझ में कुछ भी नहीं आता था।दो एक घंटे पार्क में गुजारने के
पश्चात वहाँ से भी मन उचटता तो चल देता किसी मार्केटिंग काॅम्पलेक्स में। वहाँ
शोरगुल के माहौल में मन और ज्यादा अशांत हो जाता था और फिर निकल गया किसी ऐसी जगह
जहाँ शांति हो।वहाँ पहुँचता कुछ देर के बाद तो उस घटना को लेकर मन में अजीब खयाल
आते थे और बेचैन हो जाता था। खाली रहने पर समय भी नहीं काटना पहाड़ लगता था।समझ
में नहीं आता था कि कहाँ जाऊँ और क्या करूँ।खैर किसी तरह समय काटकर आसपास नल देखकर
मुँह धोया और चल दिया कमरे की ओर।दिमाग में कहीं से यह आता ही नहीं था कि, नौकरी नहीं है या उसका
जुगाड़ करना है वो शायद इसलिए कि पैसे मेरे पास कुछ थे जिससे मैं एक-दो महीने बिना
कटौती के चला सकता था।
खैर जब तक पिताजी रहे करीब 15 दिन आवारों की तरह दिल्ली की सड़कों को अपना बसेरा बनाया।उनके रहने पर वो जिस काम के सिलसिले में आए थे पैसे बहुत तेजी से खत्म हो रहे थे।6000 किराया घर का, 5000 भाई को हर महीने, 1000 पेपर मैगजीन के इनमें कटौती हो ही नहीं सकती थी। 4-5 मई के आस पास पिताजी वापस गए तो थोड़ा चैन आया कि कम से कम दिन में घर में रहने को मिलेगा और उस मानसिक अवस्था में नाटक नहीं करना पड़ेगा। सबसे ज्यादा सुकून तो इस बात कि था कि पिताजी को कोई शक नहीं हुआ।उनके जाने के पश्चात मैं और ज्यादा अवसाद से भर गया।किसी काम में मन नहीं लगता था, खाना बनाता था बड़ी मन से लेकिन खाने का मन न करे और वो सीधे अगले दिन डस्टबिन में।अभी घर की भी मंजिल भी 20 दिन दूर थी।ऐसे ही कटता रहा और आखिर में घर जाने का वक्त भी आ गया और मैं पहुँच गया बनारस ।वहाँ पहुँच कर पता नहीं क्या मन में आया कि मैंने 4000 रूपऐ की समाजशास्त्र की किताबें खरीद ली।कुछ नया पढ़ने का मन कर रहा था और बिना किसी को शक हुए एक महीने से ज्यादा दिन काटने थे।
खैर जब तक पिताजी रहे करीब 15 दिन आवारों की तरह दिल्ली की सड़कों को अपना बसेरा बनाया।उनके रहने पर वो जिस काम के सिलसिले में आए थे पैसे बहुत तेजी से खत्म हो रहे थे।6000 किराया घर का, 5000 भाई को हर महीने, 1000 पेपर मैगजीन के इनमें कटौती हो ही नहीं सकती थी। 4-5 मई के आस पास पिताजी वापस गए तो थोड़ा चैन आया कि कम से कम दिन में घर में रहने को मिलेगा और उस मानसिक अवस्था में नाटक नहीं करना पड़ेगा। सबसे ज्यादा सुकून तो इस बात कि था कि पिताजी को कोई शक नहीं हुआ।उनके जाने के पश्चात मैं और ज्यादा अवसाद से भर गया।किसी काम में मन नहीं लगता था, खाना बनाता था बड़ी मन से लेकिन खाने का मन न करे और वो सीधे अगले दिन डस्टबिन में।अभी घर की भी मंजिल भी 20 दिन दूर थी।ऐसे ही कटता रहा और आखिर में घर जाने का वक्त भी आ गया और मैं पहुँच गया बनारस ।वहाँ पहुँच कर पता नहीं क्या मन में आया कि मैंने 4000 रूपऐ की समाजशास्त्र की किताबें खरीद ली।कुछ नया पढ़ने का मन कर रहा था और बिना किसी को शक हुए एक महीने से ज्यादा दिन काटने थे।
लेकिन असली परीक्षा अभी तो शुरू होनी थी, अभी तक तो नेट
प्रैक्टिस का दौर था।
(अगली पोस्ट
में )
'बेबाकी'
पढ़ रहे हैं लगातार
जवाब देंहटाएंआभार जीजी आपका.बस आप लोगों का आशीर्वाद है जिसे बनाये रखियेगा.
हटाएंपढ़ रहे हैं लगातार
जवाब देंहटाएंअच्छा लग रहा है (लेख )। स्थितियाँ नहीं ।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंशुक्रिया सर आपके प्रोत्साहन के लिए.मेरी अपनी आपबीती है
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