भईया और मैंने एकसाथ काम किया था बल्कि मैं उन्हें बड़ा भाई मानता हूँ।मैंने
बनारस सन 2007 में छोड़ा और भईया 2008 में।वह 2008 में भारत के प्रतिष्ठित विद्यालय 'Scindia
School, Gwalior' में भूगोल
के शिक्षक नियुक्त हुए।मैंने अपने पूरे जीवन में बहुत सारे भूगोल के शिक्षक देखें
हैं लेकिन विषय पर जिस तरह की पकड़ उनकी थी वैसा आजतक कोई नहीं मिला।सैनिक स्कूल
घोड़ाकाल और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की और भारत के सुप्रसिद्ध geomorphologist श्री सविंद्र सिंह के बहुत चहेते शिष्य थे।CMS
Lucknow से अपनी
यात्रा शुरू की उसके बाद Dalhousie Hill Top Shimla फिर Sunbeam
School Varanasi उसके बाद Scindia School Gwalior और आखिरी में Syna
International School Katni. मेरे और उनके द्वारा शिक्षित छात्र और छात्राएँ और साथ में काम किए शिक्षक उस
व्यक्ति का आकलन सही कर सकते हैं हो सकता है कि मेरा आकलन प्रभावित हो सकता
है।मुझसे करीब 12 वर्ष बड़े थे लेकिन हमेशा मुझे एक दोस्त और छोटे भाई कि तरह माना।उस व्यक्ति
से मेरी मुलाकात बनारस वाले स्कूल में हुई थी।अक्टूबर, 2004 को मैंने एक नई शुरुआत की थी।मैंने Sunbeam
School Varuna से नौकरी
शुरू की और जिस व्यक्ति से मेरा पहला परिचय कराया गया वह थे श्री अम्ब्रीश
पाठक।मैं 23 साल का लड़का केवल स्नातक हालाँकि परास्नातक का छात्र भी था उस समय और कोई
अनुभव नहीं।भईया भूगोल के परास्नातक और 12 वर्षों का अनुभव वह भी देश के नामी गिरामी
बढ़िया विद्यालयों के।मैं बहुत डरा सहमा सा रहता था और बोलने की हिम्मत नहीं होती
थी उनके सामने।उनका इस बात पर ध्यान गया और एक दिन मुझे उन्होंने बैठाकर इसपर बात
की लेकिन मेरे अंदर से वह हिचक निकल ही नहीं रही थी।उन्होंने मेरे को बहुत अच्छे
से पढ़ लिया था, मेरे ज्ञान को समझ चुके थे और उस हिचक को निकालने के लिए गजब का तरीका
निकाला।जब भी होता तो मुझे बुला लेते और बड़ी छोटी-छोटी चीजें मुझसे पूछते और मैं
सोचता कि यार इनको यह नहीं आता।कभी कभार तो अपने क्लास से किसी बच्चे को भेजते और
बोलते कि जाइए अनुराग सर को बुला लाइए।बच्चा आता मुझे बुलाकर ले जाता और जब मैं
पहुँचता तो मुझसे कहते "अनुराग सर थोड़ा यह काॅन्सेप्ट बच्चों को समझा दीजिए
शायद आप मुझसे बेहतर इनको समझा पाएँगे।मैं समझाने की कोशिश कर रहा हूँ इनको समझ
में नहीं आ रहा है तो मैंने सोचा कि आपको बुला लूँ आप बहुत टैलेंटेड हैं "
मैंने देखा कि वह ऐसे टाॅपिक पर मुझे बुलाते जो बहुत ही हल्का होता था जिस पर उनको
पूरा विश्वास होता था कि मैं समझा दूँगा आसानी से।मुझे आश्चर्य होता था कि इतनी
छोटी चीज नहीं समझा पा रहे हैं यह।
मैंने एक
दिन उनसे पूछा भी कि वह ऐसा क्यों करते हैं तो उन्होंने मुझसे कहा ' देख अनुरगवा तू हमसे बहुत छोट हऊवे अऊर तोर नाॅलेज अपने सब्जेक्ट पर जबरदस्त ह
अऊर तू अगर हमरे सम्हने एतना दब के अऊर सहम के रहबे त अपने के स्थापित कइसे
करबे।हमार का ह हमके सब जानत ह कि हम कइसन अदमी हई अऊर कइसन मास्टर हई अऊर हमार
ज्ञान का ह।तोके कऊनो दिक्कत हो त हमरे पजरे आव अऊर हमके कुछ ना समझ में आई त हम
तोरे किहन आइब।एम्मन कउनो शर्माए वाली बात ना ह।" आज यदि उन बातों को इस नकारात्मक
प्रतिस्पर्धा के दौर में सोचता हूँ और जितना मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है उस आधार
पर मैं यह कह सकता हूँ कि " साथ वाले को सिखाने में उन्हें गर्व की अनुभूति
होती थी और उससे सीखने में खुशी"।
मैंने इतने
दिनों में जो अनुभव किया है जब कोई शिक्षक बच्चों के सामने अपनी गलती को स्वीकार
नहीं करता है और अपने को श्रेष्ठ समझता है तो उसके अंदर कहाँ से वह कलेजा आएगा कि
अपनी क्लास में किसी टीचर को बुला कर बोले कि आप समझा दीजिए मैं नहीं समझा पा रहा
हूँ।
एक ही हफ्ते
में हम इतने करीब आ गए कि दोनों साथ साथ हमेशा रहते थे।मैं बनारस के दक्षिणी भाग
लंका से रोज आता था और वह पक्के महाल से आते थे।बाद में कुछ महीने के बाद हम दोनों
ने विद्यालय के पास ही फ्लैट ले लिया।भईया अकेले रहते थे और मेरे साथ मेरा छोटा
भाई रहता था।अब हमारा रोज शाम को मिलना शुरू हो गया।कभी मैं शाम को उनके यहाँ रुक
जाया करता था तो कभी वह।सुबह तैयार होकर निकल जाते नौकरी पर दोनों साथ में।कभी
मैंने उनकी शर्ट पहनी तो कभी मैंने।बहुत प्रयास हुआ प्रिंसिपल की तरफ से कि हमारे
बीच खटास उत्पन्न करा दी जाए पर उस केमेस्ट्री को तोड़ना इनके बस की बात नहीं
थी।यह तो शायद ईश्वर ही कर सकता था लेकिन खटास तो पैदा वह भी नहीं कर पाया।
यहाँ तक कि
उनके बनारस छोड़ने के बाद भी जब भी मुझे 2 दिनों की छुट्टी मिलती थी मैं Scindia School भागता था।दिल्ली से ग्वालियर मुझे महावीर मंदिर से पांडेपुर की दूरी की तरह
लगता था।जब छुट्टी में दोनों लोग बनारस पहुँचते तो क्या कहने।कभी कभार उनको परेशान
करने के लिए और मजा लेने के लिए मैं रात-बिरात फोन मिला दिया करता था।अचानक फोन
देखकर बहुत गरियाते और कहते "देख अनुरगवा तोके नींद ना आवत ह त तू सारे हमार
नींद खराब करत हऊवे।देख ढेर पानी मत भर नांही त ठीक ना होई।मिलबे त बहुत कांड़ब, आऊ तू ईंहा त बताइला तोके"।फिर कुछ देर के बाद गरियाने के बाद जब ठंडक हो
जाती थी तो फिर लंबी चर्चा और विषय होता था शिक्षा, शिक्षा का स्तर, राजनीति या समाज।भईया ही वह शख्स थे जिनसे मैं हर बात शेयर कर सकता था, हर समस्या। 20 जनवरी, 2011 की बात है जब मेरी उनसे आखिरी बार बात हुई वह
भी करीब 3 घंटे रात के ढाई बजे तक तो उन्होंने मुझे जो बात आखिरी में कही वह थी
"अनुरगवा अगर कब्बो नौकरी बदले के मूड होई त बतईहे, मैनेजमेंट से खटपट, दिल्ली में मन लगै कउनो सूरत में अगले दिन तोहरे नाम क अपाॅइंटमेंट लेटर फैक्स
करब।हमरो मन ना लगत यार।वो अकैडमिक लेवल अऊर मेंटल लेवल क टीचर ना मिलल यार जेकरे
साथ काम करे में मजा आवे अऊर कुछ सीखे के मिले अऊर आपन लेवल बढ़े।तू आ जईबे साथे त
बढ़िया रही।"
यह आखिरी
वाक्य था जो आज भी मेरे कानों में गूँज रहा है।
(क्रमशः)
बेबाकी
बढ़िया !
जवाब देंहटाएं